Tuesday, February 19, 2019

मेरी मंजिल

महज दो कदम की दूरी पर
मुझे मेरी मंजिल नज़र आती हैं
पर क़िस्मत बड़ी बारीक़ी से
सेंध लगा के चली जाती हैं
समझाया मैंने मेरे मन को
मुठ्ठियों से रेत फिसल जाती है
और पानी पर लिखी ईबादत
अक्सर मिट ही जाती है
बदलती हवाओं की चाल
रोज एक नया गुल खिलाती है
पिछड़ गया हूँ मैं इस दौड़ में
रफ़्तार-ए जिंदगी बड़ी करामाती है
मंजिले मुक़म्मल पाने की
एक आह सी ही रह जाती है
महज दो कदम की दूरी पर
मुझे मेरी मंजिल नज़र आती हैं

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