Tuesday, February 19, 2019

उर्मिल की पीर

प्रिय इच्छा थी मैं भी संग आती
महलों के कंटक से बच जाती
एकाकी जीवन जीने से अच्छा
मैं हर छण साथ तुम्हारा पाती
प्रिय इच्छा थी मैं भी संग आती
तुम ने भ्रात प्रेम में सेवक बन
समय अर्पण का किया निवेदन
उस व्रत बाधा कैसे बन जाती
रघुकुल रीति मैं वचन निभाती
विरह स्वीकार मन ताप छुपाती
महलों में सन्यासिन का जीवन
तुम्हारे दायित्वबोध में मैं अर्पण
स्वीकारी निरी वियोग की थाती
सहर्ष पुत्रवधु का बोध निभाती
त्याग कर्तव्य के पथ हम दोनों
तुम्हे विवश हारता देख न पाती
अन्यथा...
प्रिय इच्छा थी मैं भी संग आती
महलों के कंटक से बच जाती
एकाकी जीवन जीने से अच्छा
मैं हर छण साथ तुम्हारा पाती

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