Tuesday, February 19, 2019

तेरी चाह

बीते इतने वर्षों में भी एक कोना आरक्षित है।
मुंदी चाहत की दीवारों में तेरी चाह जीवित है।
मेरे प्रेम आकर्षण की तुम ही प्रथम बिंदु थी ।
युवा उमंगित मन की तुम ही शीतल सिंधु थी।
तब चाह के कह न सका मन आज भी गर्वित है।
प्रथम प्रेम की परिभाषा तुमसे ही सुसज्जित है।
स्वपनों और विचारों में तुम आज भी आती हो।
जीवन के सूने छणों को रोमांचित कर जाती हो।
भान कहा गति मन की जो मन भीतर अंकित है।
ह्रदय तुझे दे बैठा था वह छन आज भी संचित है।
मुझे ज्ञात तुम भी मेरी चाहत से अनभिग्य न थी।
जता पाए एक दूजे को बस ऐसी हिम्मत न थी।
दोनों के मन पाने खोने का एहसास सुरक्षित है
जग ज़ाहिर हो न सका दोनों का ह्रदय परीक्षित है
बीते इतने वर्षों में भी एक कोना आरक्षित है।
मुंदी चाहत की दीवारों में तेरी चाह जीवित है।

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