- ...पर्वत से निकली पीर और भेद गयी अलख धरती को
लाशों के अंबार लगे कोई कंधा न मिला अर्थी को
त्राही के इस काल चक्र में भला कौन किसे सम्भालेगा
किसे पता था जल ही जीवन, इस जीवन को ही हर लेगा
उत्तरकाशी से जो मौत चली उसकी सिसकी में डूबा हर जनमानस है
लौट अपने सब घर आयेंगे, बस सबके मन यह ही ढान्ढस है
विपदा की इस कुपित घड़ी में सबको सम्मत दे भगवान
और मृतक भयीं सब पतित आत्मा को मिलें आत्मशांति का वरदान
आस्था प्रभु पर रहे जाग्रत, हे प्रभु कुछ मान धरो भक्त की भक्ति को
जो फँसे हुए है उन्हें दो जीवन दान, उन्हें विश्वास तुम्हारी शक्ति को
"कुदरत का कुछ ऐसा खेल हुआ कि एक पल में ही सब जमींदोज हो गया। चारों ओर केवल तबाही का मंजर। उत्तरकाशी का भी कुछ ऐसा ही नजारा। इस आपदा के बीच शुरू हुई जिंदगी की जंग।"
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Wednesday, July 31, 2013
पर्वत से निकली पीर
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