- आवाज़ दो अंतर्मन को
जो शांत किसी गुमसुम की तरह,
जो दबा के बैठा अपनी टीस को,
आवाज़ दो उस अंतर्मन को
किस लिए यह मौनता
किस लिए कर्ण और जीभा पर,
किया आमंत्रण विराम को,
कि उपस्तिथि रही नाम को
तोड़ो निरंतर इस चुप्पी को
और आवाज़ दो अंतर्मन को
जो है विराजमान हृदय में
उस विकट झंझावर को
अब तो कुछ विराम दो
जब तक चुप्पी टूटेगी नहीं
तब तक अनियंत्रित दर्द और वेदना
कुरेदगी भीतरी इनसान को
और खत्म हो जाएगी लालसा
स्थापित करने अपने ही सम्मान को
इस लिए चुप्पी को विराम दो
और आवाज़ दो अंतर्मन को
जो दबा के बैठा अपनी
दर्द वेदना और टीस को,
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Wednesday, July 31, 2013
दर्द वेदना और टीस
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