नन्ही बिटिया ने जब अपनी जमा पूँजी मेरे नाम कर दी
सच कहता हूँ महँगाई कि असाहयता ने मेरी आँख भर दी
जिद थी उसकी, उसे भी छुट्टियां कहीं बाहर बितानी थी
पर मेरे साथ तो तंगहाल गरीबी कि पुरानी कहानी थी
मासूम को आत्म बोध हुआ की चंद सिक्कों से क्या बदलेगा
जरूरत का समुंदर तो एक छोर से दूजे छोर ले जाकर पटकेगा
वह समझ गयी हालातों को मेरे बिन बोले जो मुझे बताना था
अगले ही पल उसके कोमल मस्तिष्क तंत्र में यह बहाना था
मुझे मजबूर देख् बोली लाडो, घर अच्छा तो बाहर क्या जाना
पापा जमा किया मैंने भी कुछ, इसे भी जरूरत में लगाना
नन्हे हाथों से उसने हँसते हँसते, अपनी खुशी भेँट कर दी
सच में तब महँगाई कि असाहयता ने मेरी आँख भर दी............
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Wednesday, July 31, 2013
नन्ही बिटिया
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