- शाख सूखी सी पड़ी मैदानों में
ढुंढ़ती हरियाली जो हो बहारो की तरह
यह बुलंद हिमालय बिखर रहा
ताश के पत्तो की तरह
मीनारों ने जमी छोड़ी
ढ्ह गयी कोरी रेत की दीवारों कि तरह
...कल तलक जहां हिमगिरि थी
बह गयी आज नालों की तरह
कौन कहता है धरती कोहनुर है मेरी
अब चिटकती है काँच के प्यालों कि तरह
कल मधु टपकता था जुबां में
आज चुभता है गलियों कि तरह
दौड़ इतनी चली हमने
छोड़ी दीं विरासत गैरो की तरह
जिसे कहते है तरक्की यारों
आज लगती मौत के गलियारों कि तरह
ते़ज लहरों में भटकीं नाव जैसे
बिना माझी बिना पतवारो की तरह
शाख सूखी सी पड़ी मैदानों में
ढुंढ़ती हरियाली जो हो बहारो की तरह
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Monday, August 13, 2012
हिमालय बिखर रहा
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