Monday, August 13, 2012

हिमालय बिखर रहा


  1. शाख सूखी सी पड़ी मैदानों में
    ढुंढ़ती हरियाली जो हो बहारो की तरह
    यह बुलंद हिमालय बिखर रहा
    ताश के पत्तो की तरह
    मीनारों ने जमी छोड़ी
    ढ्ह गयी कोरी रेत की दीवारों कि तरह
    ...
    कल तलक जहां हिमगिरि थी
    बह गयी आज नालों की तरह
    कौन कहता है धरती कोहनुर है मेरी
    अब चिटकती है काँच के प्यालों कि तरह
    कल मधु टपकता था जुबां में
    आज चुभता है गलियों कि तरह
    दौड़ इतनी चली हमने
    छोड़ी दीं विरासत गैरो की तरह
    जिसे कहते है तरक्की यारों
    आज लगती मौत के गलियारों कि तरह
    ते़ज लहरों में भटकीं नाव जैसे
    बिना माझी बिना पतवारो की तरह
    शाख सूखी सी पड़ी मैदानों में
    ढुंढ़ती हरियाली जो हो बहारो की तरह

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