- कितने लोगो को दो वक्त कि रोटी मिलती है
और कितनो की सुबह उम्मीदों से मिलती है
सर्द रातों में ठिठुरते तन को चीट नसीब कहां
सर छुपाने को मिलीं जिन्हें नीली छतरी यहां
जिनके के दम से रौशन सत्ता के गलियारे है
वह शासन और प्रशासन से हुए किनारे है
... आवाज़ दब सी गयी भीड़ में गला दुखने तक
कोई भी सुध नहीं लेता गरीब के मरने तक
सियासत को इंतज़ार इस भीड़ के गुजरने का
पक्ष और विपक्ष को इंतज़ार मुद्दा मिलने का
किसी की मौत किसी की रोटियां है सिकती
खामियाजा गरीब की जिंदगी कौड़ियों में बिकती..................
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Saturday, December 29, 2012
दो वक्त कि रोटी
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