Saturday, November 9, 2013

आम सोच

एक आम सोच, जो अंजान अकेली घबरायी सी
खुशियों के स्वप्न मात्र से कुछ कुछ बौराई सी
है बिल्कुल तेरे मन की न समझो इसे पराई सी
बंद आख तो मात्र निशा की परछाई सी
देखो सच और करो सामना वरना जीत हरजाई सी
सन ४७ बीते वर्ष ६६ क्यों तुमने न अंगड़ाई ली
उठो बड़ो अब तो तज दो रीत वही अलसायी सी
एक आम सोच, जो अंजान अकेली घबरायी सी

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