- तुम सोच हो मेरी
जिसे सोच कर मै कभी उदास
कभी दूर कभी नितांत पास
कभी एक मीठा एहसास
तुम्हारी अहमियत इतनी ख़ास
की मै अपने वजूद को अधूरा पाता हूँ
... जब तुम्हारी सोच से दूर जाता हूँ
नहीं जनता तुम क्या सोचती हो
पर मै सोचता हूँ तुम जरूर सोचती हो
वैसे ही जैसे मै सोचता हूँ
हर पल हर छ्ड़
क्योँकि तुम सोच हो मेरी........
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Saturday, December 29, 2012
तुम सोच हो मेरी
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