- इन आँखों ने देखे मंज़र बहुत
कभी आँखें थी मेरी कभी आँखें थीं तेरी
इन्हीं आँखों में पलते सपने बहुत
कभी डबडबाई तेरी कभी डबडबाई मेरी
टूटे जो सपने कभी जब अपने
आँखों को खलती निराशित परछाई
...मन्शा नहीं था दिल को दुखाना
पर आँखों का तो है काम दिखाना
दर्द कि सतह या खुशी का ठिकाना
आँखें भला करे क्या बहाना
मजबूर आँखें क्या मेरी क्या तेरी
इन आँखों ने देखे मंज़र बहुत
कभी आँखें थी मेरी कभी आँखें थीं तेरी
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Monday, August 13, 2012
आँख
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