- एक अन्धे मोड़ की तरह जिंदगी
पता नही टक्कर है की रस्ता साफ
चप्पलें घिस जाती है और पता नहीं
होगा भी की न होगा इंसाफ
ठन्डे बदन को शोले क्या दे तपन
हो चुके जो ख़ुद सपुर्दे खाख
...आँख खोलते ही भूख से सामना
जिंदगी को लगी मज़बूरियों की आग
जवान बेटी घर ब्याहने को है
दहेज ने मुश्किल खड़ी की लाख
किताबी ज्ञान दे बेटे को किया खड़ा
पर नौकरी हाथ कब आए बेबाक
पेंशन की लाइन में बूड़ा मरी
पर आई न कौड़ी भी हाथ
सपने अपना भी घर बनाने के
पर खुली आँखों से दिखे नाकामी साफ
सोचता हूँ कि यह वतन अपना ही है
कि भटक के आ गया दुश्मनो के पास
जिनके हाथों सौपी देश की तक़दीर
वही कर गये सपनो को खाख
गंध सियासत को मिटा दो यारों
वरना देश की तबीयत का होगा मजाक
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Monday, August 13, 2012
अन्धे मोड़
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