Wednesday, May 16, 2012

परम्परा

अन्याय परम्परा इनकी, अम्बेदकर लिखा कानुन कब कोई सरकार पड़ती है
शर्म और हया बेच कर जो किताब लाये उसके हर पन्ने में बेशर्मी बरपती है!
लाज सरे चौराहे निलाम हुई और जिंन्दगी हर मोड़ बेपनाह तड़पती है!
इन्होंने इस कदर किया जीना हराम की लड़ाइ खुदबाखुद हमसे लड़ती है!
वह चैन से बैठे महलो में और अपनी जिंदगी किसी कोने में सड़ती है!
जनता जनार्दन तो एक गाली इसके ओर छोर तो रुसवाई पसरती है!
नाकामिया तकदीर बन गयी कम्बख्त सियासत ऐसी चाल चलती है!
सत्ता नाम तानाशाही का भला कब किसी की इनके आगे चलती है!
आवाज दब गयी हर इंसान की आज तो बदनाम हुकुमत कि सरपरस्ती है!
समय की माँग है लरो या मरो वरना ख़ुद सोइ तकदीर कब जगती है!

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