मै
चलते चलते यह कहा निकल आया!
शांत वादियों से दूर घनी आबादी जहा!
एकांत में
बसे गाव से जहा अपने थे सभी!
वे साथी जितने सुख के उतने दुःख के भी
ठीयाव
बदलने से पहले ना सोचा था कभी!
... मतभेदों भरी होगी आने वाली जमी!
यहा आबादी जरूर पर मन
मिलें ना कभी!
क्योकी यहा एक दूसरे के प्रतिद्वदी है सभी!
यहा किसी को किसी
का साथ रास ना आया!
न जाने,
मै चलते चलते यह कहा निकल आया!
अंत नहीं सोच
पर, पर द्वंद मचे सोच पर!
बहुमंजिला इमारतें इर्शा की बुनियाद पर!
जीवन पर
हाबी जहा मौत का मकाम है!
सिसकी भरी जिंदगी हुई जहा सरेआम है!
बेहंताया फिक्र
अपनी चाहे दूसरा बरबाद हो!
फकीर कब्र पर जहा मैखाने आबाद हो!
तंग हाल उम्र को
जहा भागते पाया!
बेबसी ने जहा हर यकीन को रुलाया!
न जाने,
मै चलते चलते
यह कहा निकल आया!
जो था वह कम लगा,
छोड़ उसको कोसों दूर मै चला आया!
देखने
को तो मन माफिक ही पाया!
पर उदासी और अकेलापन हुआ हमसाया!
ख़ुद को गैरियत कि
चोट से चोटिल पाया!
जो साथ वह कितने साथ समझ ना आया!
आज के हालात पर यह दिल
भर आया!
उन गालियों में आत्मा आज भी भटकटी है!
क्योकी इन गलियों में तलवार ही
लटकती है!
बीत गयी सदिया यहा पर अपना ना कहाँ पाया!
न जाने,
मै चलते चलते
यह कहा निकल आया!
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